सामाजिक सोच
23/11/2015 20:48
कहते है उम्मीदों पर दुनियाँ टिकी है, उम्मीदों के सहारे जिंदगी भी कटती रहती है। ये उम्मीदे संसार में भुत वर्तमान की तरह भविष्य के साथ-साथ चलते है। इसी वजह से इन्सान अपने भविष्य में होने वाले परिवर्तनो के लिए, अपने वर्तमान के परिस्थितियों में कुछ बदलाव की उम्मीदे पाल भविष्य की इंतजार करता है। ऐसा भी कहा जाता है, की अक्सर भविष्य और भविष्य में होने वाले वांछित बदलावों की उम्मीदों के सहारे जीने वाला इन्सान, सर दर्द का मरीज बन जाता है। वो चाहे निजी मामला हो या समाजिक परिवेश, वर्तमान से नाखुश भविष्य के सुनहरे पलो के उम्मीदों के प्रति कर्तव्य परायण होना आवश्यक हो जाता है। अन्यथा भविष्य अपने साथ खाली उम्मीदों का झोका बन भुत काल में परिवर्तन हो जाता है। आज हर कोई अपने निजी मामलो में ही तन-मन से संलग्न है, किसी को भी समाजिक, सामरिक और देश के वर्तमान, भविष्य से कोई उम्मीद नहीं है, कुछ लेना देना नहीं है। यही वजह है की आज देश ऐसे नेता, कुछ ऐसे पार्टिया चला रहे है, जिनके बारे में कुछ कहने-सुनने या उनके बारे में बात करने से पहले ही मन जबान कड़वी हो जाती है। किसी व्यक्ति विशेष को छोड़ कर हर किसी को अपने आप को इस देश का सर्वोपरि, उसकी पार्टी देश की रीती और नीति बन गई है। उसके बोलो से, उसके भाषणो से मात्र उम्मीदों का बंधा हुआ पुलिंदा ही मिल रहा है। ऐसा सबको दिखता भी है, सुनता भी है, फिर भी ऐसा चलता आ रहा है और चलता ही रहेगा शायद।
देश की जनता में आज सबसे बड़ी शक्ति युवाओ की है परन्तु युवा, बड़े बुजुर्गो के तजुर्बे के बिना कुछ नहीं कर सकते। और वो बड़े बुजुर्ग ज्यादा कभी देश के प्रति कर्तव्यनिष्ठ हुए तो देश में सत्ता परिवर्तन करा दिया, और फिर बैठे गय 5-10 सालो के लिए उन नेताओ के भाषणो में उम्मीदों को सहेजे कभी ना दिखने वाले सपनो को सुनने के लिए। देखने के लिए। देश में एक नई लहर आई तो नई सरकार से उम्मीदे भी कई बंधी। लेकिन जिस तरह अच्छे दिन के मुहावरे को तब्जो दी गई उस सरीखे उन उम्मीदों पर अभी तक काम नजर नहीं आ रहा है। इस सरकार ने भी वही 60 सालो से चली आ रही रीती अपना ली, सिर्फ देश वाशियो को उम्मीदो का झरोखा दिखाना। और तो और अब उन उम्मीदो की मियाद भी 2019 तो कभी 2022 तक बढ़ती ही जा रही है। आखिर ऐसा क्युँ हो रहा है? हम दुनियाँ के विकाश के तर्ज को क्युँ नहीं पहचान पा रहे है? हमारे देश के नेताओ के पास भाषण और आश्वासन के अलावा कुछ नहीं मिलता, और हम उनके भाषणो को सुनने के लिए हुजुम बन कर चल पड़ते है। वैसे ही समय निकाल कर हम उनके चुनावी भाषणो में दिखाय उम्मीदो के सपनो को, सकार करके दिखाने के लिए कोई हुजुम क्युँ नहीं बना पाते है। देश के एक सम्मानिय व्यक्ति देश के युवाओ को कभी-कभार आवाहन करने में सफल तो हो जाते है, लेकिन अपने आन्दोलन को मंजील तक लेकर जाने में सफल नहीं हो पाते। उलट उनके आन्दोलन से कुछ और राजनितिज्ञ परजीवी निकल आते है। जिंदगी के इस पड़ाव में उन्हें सारा जोश देश के हालात को बदल देने के लिए झोक देना चाहिए, तब जाके शायद जिंदगी के भाग दौड़ से कुछ समय निकाल कर देश के युवा उनसे प्रेरणा ले सके।
वो युवा शक्ति प्रेरित हो उन सब बातो, भाषणो, और उम्मीदो से आते-प्रोत चुनावी वादो के एक-एक शब्दों के लिए, आन्दोलन दर आन्दोलन करते जाए। तब कही जाकर अपनी मातृभूमि एक पवित्र धरा कहलाएगी। आजादी के 69 वे साल के बाद भी हम सही मायने में कहाँ से, किससे, और कैसे आजाद है? ये इस देश का हर एक नागरिक बखुबि व्याख्या दे सकता है। और उसके शब्द यही होंगे की हम आज भी गुलाम है, हम गुलामी कर रहे है- देश पर राज कर रही बड़ी-बड़ी पार्टिया की, उन पार्टियो के नकचढ़े आकाओ के, जो मात्र हमे चुनावी प्रवचणो में सुनाए गय देश को बदल देने के दृढ़ संकल्प को, अपने-अपने लब्जो, अपने-अपने लहजो से लुमाते फिरते है। हम इस देश के संतान युँ ही हर पाँच साल बाद बदलने वाली सरकारो के वादो, औरो से अच्छा करके दिखाने के दृढ़ निश्चय के सहारे, उनके हमारे लिए हमारे आने वाली पीढ़ियों के लिए रामराज्य की उम्मीद करके बैठे रहे तो हमारी पीढ़ियों को भी युँ ही जीए जाने की लत लग जाएगी। इसलिए मेरे देश प्रेमियो उठो, जागो, हमे इस पावन धरती को फिर पहले जैसे ही निर्मल, स्वच्छ, भ्रस्टाचार से मुक्त बनाने की ओर पहला कदम बढ़ाए। हमें ये संकल्प उसी अंदाज में लेना होगा जैसे कभी आजादी के मतवाले अंग्रेजो के खिलाफ ले उठे थे। क्युँ की समय बहुत कम, आंदोलन, जन जागृत बहुत करने है।
जय हिन्द, जय भारत
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